लट्ठमार होली
राधा रानी के जन्म स्थान
बरसाना की लट्ठमार होली का पर्व अपने अनोखे तरीके से मनाने के लिए विश्वप्रसिद्ध
है। यह उत्सव फाल्गुन माह की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन हर्षोउल्लास से मनाया जाता
है। होली का पर्व बसंत ऋतु का स्वागत करता है। 

होली का पर्व विश्व के हर
कोने में विभिन्न तरीको से मनाया जाता है, जैसे स्पेन में लाखों टन टमाटर एक-दूसरे
पर फेंकतें है। तेरह से पंद्रह अप्रैल को थाईलैंड में 'सौंगक्रान' का पर्व मनाया
जाता है जिसे वह नव वर्ष का प्रतीक माना जाता है । इस पर्व में अपने बड़ो के हाथों में जल डालकर आशीर्वाद लिया जाता है।
अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है, लोगों का विश्वास है कि सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखने पर उसकी सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण पर्यावरण को हानि नहीं पहुँचाता है।
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कान्हा की नगरी में होली का अलग ही उत्साह देखने को
मिलता है। मथुरा और ब्रज की होली दुनियाभर में अपनी अनोखी छटा, प्रेम और परंपराओं के
लिए जानी जाती है। यहां रंगों की होली बाद में खेली जाती है ,पहले खुशियों के
नाम पर महिलाएं पुरुषों पर लाठी बरसाती हैं और सब लोग खुशी से इस रस्म का पूरा आनंद
उठाते हैं। इसे लट्ठमार होली कहा जाता है।
आज भी राधा - रानी मंदिर
(बरसाना ) में एक सप्ताह तक यह उत्सव मनाते है। माना जाता है कि ब्रज की लट्ठमार होली
राधा-कृष्ण की रासलीला की पुनरावृत्ति है। पौराणिक कथाओं मे बताया है कि
कृष्ण हो डर था कि कहीं उनका साँवला रंग उनको राधा से दूर ना कर दें | राधा
को अपने रंग मे रंगने के लिये वह बरसाना में जाकर राधा और उनकी सखियों के साथ
रंगों से से होली खेलने जाते थे, उनके साथ ठिठोली करते थे जिस पर राधारानी और उनकी
सखियां उन पर डंडे बरसाया करती थीं। ऐसे में
लाठी-डंडों की मार से बचने के लिए ग्वाल वृंद भी लाठी या ढ़ालों का प्रयोग किया करते
थे जो धीरे-धीरे होली की परंपरा बन गया। उसी का परिणाम है कि आज भी इस परंपरा का निर्वहन
उसी रूप में किया जाता है।
सच है कि त्योहार जीवन में
उगंग और उल्लास लाते है । त्योहार धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक
है। वहीं लट्ठमार होली लोगों में आपसी भेदभाव को भुलाकर खुशियाँ बाँटता है। वहीं दूसरी
ओर ये महिलाओं की शक्ति और जीत को दर्शाता है।
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