जड़

 

जड़ किसे कहते हैं?

पौधे का भूमिगत भाग, जो मूलांकुर (Radical) से विकसित होता है तथा प्रकाश के विपरीत जाता है, जड़ या मूल (root) कहलाता है।

जड़ों के मुख्य कार्य:-

1.    जड़ें मूल रोमों (root hair) की सहायता से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते है।

2.    (जलोद्भिद् में मूल रोमों का अभाव होता है) पिस्टिया व लेमना पौधों में मूल गोप की जगह मूल पॉकेट (root pocket) पाया जाता है।

3.    जड़ें पौधों को भूमि में स्थिर रखती है और मिट्टी के कणों को परस्पर बांधे रखती हैं

4.     कुछ जड़ें अपने अंदर भोज्य पदार्थों का संग्रह करते हैं प्रतिकूल परिस्थितियों में इन संचित भोज्य पदार्थों का पौधों द्वारा उपयोग किया जाता है।

 जड़ की विशेषताएँ

1.     जड़ पौधों के अक्ष का अवरोही (Descending) भाग है, जो मूलांकुर (Radicle) से विकसित होता है।

2.     जड़ सदैव प्रकाश से दूर भूमि में वृद्धि करती है।

3.     भूमि में रहने के कारण ही जड़ों का रंग सफेद अथवा मटमैला होता है।

4.     जड़ों पर तनों के समान पर्व (Nodes) एवं पर्व सन्धियाँ (Internodes) नहीं पायी जाती है।

5.    जड़ों पर पत्र एवं पुष्प कलिकाएँ भी नहीं होती हैं। अतः ये पतियाँ, पुष्प एवं फल धारण नहीं करती हैं।

6.    जड़ें सामान्यतः धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती (Positive geotropic) तथा ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती (Negative phototropic) होती हैं।

7.    जड़ का सिरा मूल गोप (Root cap) द्वारा सुरक्षित रहता है।

8.    जड पर एककोशिकीय रोम (Unicellular hairs) होते हैं।

जड़ों के प्रकार (Types of Roots)

2.   मूसला जड़ किसे कहते है ?Tap Root)

इस प्रकार की जड़े अधिकांशतया द्विबीजपत्री पौधों (Dicotyledonous plant) में पाई जाती हैं। इस प्रकार की जड़ में मूलांकुर (Radicle) विकसित होकर एक मुख्य जड़ का निर्माण करता है। जिसे प्राथमिक मूल (primary root) कहते हैं। इसके चारों तरफ पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं, जिन्हें द्वितीयक जड़ (secondary roots) कहते हैं। द्वितीयक जड़ों से पुनः पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं, जिन्हें तृतीयक जड़ (Tertiary roots) कहते हैं। इस प्रकार ये सब मिलकर मूसला जड़ तंत्र (Tap root system) बनती हैं।

 

ऐसी जड़ें द्विबीजपत्री पौधों में पायी जाती हैं तथा भूमि में बहुत गहराई तक वृद्धि करके पौधे को मजबूती से खड़ा रखती हैं। 

यह जड़, चना, मटर, गाजर, मूली, सरसों, आम, नीम इत्यादि  पौधों में पायी जाती है।


मूसला जड़ों का रूपांतरण Modifications of tap root


मूसला जड़ मूलांकुर के भाग से एक मुख्य शाखा के रूप में विकसित होती हैं, किंतु भोजन पदार्थों का संग्रह करने के कारण इनकी आकृति बदल जाती है, तथा यह मोटी और मांशल हो जाती हैं। इनकी आकृति के आधार पर मूसला जड़ो का रूपांतरण निम्न प्रकार से होता है, तथा उन्हें अलग प्रकार के नामों के द्वारा पुकारा जाता है:-  

 

(1) तर्कुरूपी (Fusiform): इस प्रकार की मूसला जड़े मध्य में फूली हुई तथा आधार एवं शीर्ष की ओर पतली होती हैं। जैसे-मूली 

 (2) शंकुरूपी (Conical): इस प्रकारी की मूसला जड़े आधार की ओर मोटी तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती हैं। जैसे-गाजर 

 (3) कुम्भीरूपी (Napiform): इस प्रकार की मूसला जड़ों का ऊपरी भाग लगभग गोल तथा फूला हुआ होता है तथा नीचे की तरफ से एकाएक पतला हो जाता है। जैसे-शलजम ,चुकन्दर 

 (4) न्यूमेटाफीर (Pneumataphore): राइजोफोरा, सुन्दरी आदि पौधे जो दलदली स्थानों पर उगते हैं, में भूमिगत मुख्य जड़ों से विशेष प्रकार की जड़ें निकलती हैं, जिसे न्यूमेटाफोर कहते हैं। ये खूंटी के आकार की होती हैं, जो ऊपर वायु में निकल आती हैं। इनके ऊपर अनेक छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिन्हें न्यूमेथोडस (Pneumathodes) कहते हैं। जैसे- राइजोफोरा, सुन्दरी 


अपस्थानिक जड़े किसे कहते है ?

कुछ पौधों में अकुंरण के कुछ समय बाद मूलांकुर (Redicle) की वृद्धि रुक जाती है और प्रांकुर के आधार या तने की निचली पर्वसन्धियों से रेशे के रूप में जड़ें विकसित हो जाती हैं, उन्हें ही अपस्थानिक या रेशेदार जड़ (Fibrous root) कहते हैं। इस प्रकार से बने जड़ गुच्छ को अपस्थानिक जड़ तन्त्र (Adventitious root system) कहते हैं।

अपस्थानिक जड़ मूलांकुर की वृद्धि एक जाने के कारण जड़े शाखाओ, तनों के आधारीय भागों तथा पत्तियों में निकलती है। यह प्रायः एकबीजपत्री (monocot plants) पौधों में पाई जाती है 

जैसे-धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, बाजरा, गन्ना इत्यादि। 

कुछ द्विबीजपत्री पादकों जैसे बरगद, पान, अमरबेल इत्यादि  में भी अपस्थानिक जड़ें पायी जाती हैं। ये जड़ें भूमि में गहराई तक जाकर केवल ऊपरी सतह तक फैली होती हैं।

अपस्थानिक जड़ो का रूपान्तरण Modifications of adventitious roots

अपस्थानिक जड़ो में भोजन संग्रहण के साथ अन्य कई कार्य जैसे पौधों को यांत्रिक सहारा देना आदि के कारण निम्नप्रकार से रूपान्तरण होता है:-



भोज्य पदार्थो के संग्रहण के कारण

(1) कन्दिल जड़ें (Tuberous roots): खाद्य पदार्थों के संचय के कारण इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ की कोई निश्चित आकृति नहीं होती है। जैसे-शकरकद।

(2) पुलकित जड़ें (Fasciculated roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ों में अनेक मांसल फुली हुई जड़ें गुच्छे के रूप में तने के आधार से निकलती हैं। जैसे-डहलिया  

(3) ग्रन्थिल जड़ें (Nodulose roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अपने सिरे पर फ्लकर मांसल हो जाती हैं। जैसे-अदरक 

(4) मणिकामय जड़ें (Moniliform roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े थोड़े-थोड़े अन्तराल पर फूली रहती हैं। ये आकार में मणिकाओं की माला की भाँति होती है। जैसे-अंगूर, करेला 

 यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिए 

(i) स्तम्भ मूल (Prop roots): कुछ पौधों की शाखाओं से अनेक जड़ें निकलती हैं जो मोटी होकर भूमि में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार ये वृक्षों की लम्बी एवं मोटी शाखाओं को सहारा प्रदान करती हैं। इस प्रकार की जड़ें ही स्तम्भ मूल (Prop root) कहलाती हैं। जैसे-बरगद, इण्डियन रबर आादि 

(ii) अवस्तम्भ मूल (stilt roots): इस प्रकार की जड़ें मुख्य तने के आधार के समीप से निकलकर भूमि में तिरछी प्रवेश कर जाती हैं और पौधे को यांत्रिक सहारा प्रदान करती हैं। जैसे-मक्का, गन्ना आदि।
(iii) आरोही मूल (Climbing roots): इस प्रकार की जड़ें हर्बल तनों की सन्धियों अथवा पर्व सन्धियों से निकलती हैं तथा पौधों को किसी आधार पर चढ़ने में सहायता करती हैं। इस प्रकार की जड़े अगले सिरे पर फूलकर छोटी-छोटी ग्रन्थियाँ बनाती हैं, जिनसे एक तरह का चिपचिपा द्रव स्रावित होता है जो तुरन्त ही वायु के संपर्क में सूख जाता है। जैसे-पान, पोथोस आदि 

अन्य जैविक क्रियाओं के लिए रूपान्तरित अपस्थानिक जड़े 

(1) परजीवी या चूषण मूल (Sucking roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ परजीवी पौधों में विकसित होती हैं, जो पोषक पौधों (Host plants) के ऊतकों में प्रवेश कर भोज्य पदार्थों का अवशोषण करती हैं। जैसे-अमरबेल, चन्दन आदि।

(2) श्वसनी मूल (Respiratory roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें कुछ जलीय पौधों (Aquatic plants) में पाई जाती हैं। इन जलीय पौधों की प्लावी शाखाओं (Floating branches) से विशेष प्रकार की नर्म, हल्की एवं स्पंजी जड़ें निकलती हैं जिनमें वायु भर जाती है। इस प्रकार की जड़ें पौधों को तैरने एवं श्वसन में मदद करती हैं। जैसे- जूसिया।

(3) अधिपाद मूल (Epiphytic roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़ें अधिपादपों (Epiphytic plants) में पायी जाती हैं। इस प्रकार की जड़ें पत्तियों के कक्ष से निकलकर हवा में लटकती रहती हैं। इन जड़ों में वेलमिन (velamen) नामक आर्द्रताग्राही स्पंजी ऊतक उपस्थित होता है, जो वायुमण्डल की आर्द्रता को अवशोषित करता है। जैसे- ऑर्किड।

(iv) स्वांगीकारक मूल (Assimilatory roots): इस प्रकार की अपस्थानिक जड़े तने के आधार से निकलकर फैल जाती हैं। ये हरी, लम्बी एवं बेलनाकार होती हैं। इनमें हरितलवक (Chlorophyll) भी पाया जाता है जिस कारण ये प्रकाश संश्लेषण क्रिया करती हैं। जैसे- सिंघाड़ा, टिनोस्पोरा (Tinospora) आदि।

Comments

Popular posts from this blog

रंगों का त्योहार, होली

देव दीपावली