रानी लक्ष्मीबाई


रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्य क्रान्ति की  वीरांगना थीं। मात्र 29 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत का डटकर सामना किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।  उनकी  वीरता की गाथाएँ इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से लिखी गई है।

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 18 नवम्बर 1828 को हुआ था।उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था सब उन्हें  प्यार से मनु पुकारते थे। वह बचपन में बहुत चंचल और नटखट थी।मनु के पिता मोरोपंत तांबे एक दयालु व्यक्ति थे। वह पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहाँ कार्य करते थे। माता भागीरथी बाई बुद्धिमान,धार्मिक और सुसंस्कृत स्वभाव की थी
जब मनु चार वर्ष की थी उनकी माँ का देहांत हो गया था, घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले गये। बाजीराव  उन्हें प्यार से "छबीली" कहकर बुलाते थे।। मनु का बचपन उनके महल में बीता ।मनु ने तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ अस्त्रों -शस्त्रों की शिक्षा ली।
सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ । विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी।  राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद  1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, पर उन्होंने अपना धीरज नहीं खोया।
कहा गया है कि राजा गंगाधर राव ने अपनी मृत्यु से पहले अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को  अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया ।1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को बिट्रिश राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी।  
रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया और कहा 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी' । रानी लक्ष्मीबाई ने  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध आवाज उठाई थी।




इसी दौरान झांसी के पड़ोसी राज्यों ओरछा तथा दतिया ने फायदा उठाया और आक्रमण कर दिया पर उन्हें लक्ष्मी बाई के आगे घुटने टेकने पड़े।  1858 के शुरुवात में अंग्रेजी सेना ने झाँसी को  घेर लिया था औरदो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने उन पर क़ब्ज़ा कर लिया।  रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।

वहाँ उन्होंने तात्या टोपे और नाना साहब विचार-विमर्श किया। उनकी और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई । उन्होंने आखिरी क्षण तक  साहस नहीं छोड़ा था ।



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