स्वामी विवेकानंद
भारत के महापुरुष स्वामी विवेकानंद( नरेंद्र) जिन्होनें रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ की स्थापना सन् 1897 में कोलकत्ता में की थी। उन्होंने पाश्चात्य जगत में सनातन धर्म, वेदों तथा ज्ञान शास्त्र से लोगों को परिचित कराया । विश्व भर में लोगो को अमन तथा भाईचारे का संदेश दिया और देश में फैल रही जातिगत भेदभाव जैसी कुरीतियों में सुधार लाए।
ऐसे महापुरुष जिनकी विलक्षण स्मरण-शक्ति और बुद्धि की सभी प्रशंसा करते थे । उनके जन्मदिन पर प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को 'राष्ट्रीय युवा दिवस' मनाया जाता है।
आध्यात्मिक विचारों वाले नरेन्द्र ने, आठ साल की उम्र में सन् 1871 में ईश्वर चंद्र विद्यासागर
के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित विषयों के एक उत्साही पाठक थे। उनकी वेदों सहित अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया।1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।
स्वामी विवेकानंद जी बचपन से ही बड़े ही जिज्ञासा प्रवृत्ति वाले व्यक्ति थे। जिसके चलते उन्होंने एक बार महर्षि देवेंद्रनाथ से सवाल पूछा “कि क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है?” स्वामी जी के इस सवाल से महर्षि जी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने स्वामी जी के जिज्ञासा को शांत करने के लिए रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी ।
श्री रामकृष्ण से मिलने के बाद इनका धार्मिक और संत का जीवन शुरु हुआ और उन्हें अपना गुरु बना लिया।राम कृष्ण जी की मृत्यु के बाद नरेंद्र ने ब्रह्मचार्य त्याग का व्रत किया और वे नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद हो गए। इसके बाद इन्होंने वेदांत आन्दोलन का नेतृत्व किया और भारतीय हिन्दू धर्म के दर्शन से पश्चिमी देशों को परिचित कराया।
11 सितंबर 1893, में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। । वह विश्व स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करने और सभा में अपने गुरु के दर्शन को साझा करने के लिए उत्सुक थे। दुर्भाग्यवश शुरुआत में उन्हें वहाँ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें हीन दृष्टि से देखा गया। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।
उन्होंने अमेरिका के लोगों को , “मेरे भाइयों और बहनों'" कहकर संबोधित किया । इन शब्दों को सुनकर पूरी अमेरिकी जनता हैरान रह गई क्योंकि ये शब्द पूरी दुनिया
को भारतीय संस्कृति के महत्व को दिखाने के लिए काफी थे।
उस धर्मसभा में उन्होंने किसी भी धर्म या संप्रदाय को बड़ा न कहकर समस्त मानव समाज की उन्नति की बात कही। परोपकार, सेवा-भाव और विश्व-शांति का पाठ पढ़ाकर वे रातों-रात सबकी आँखों के तारे बन गए
4 जुलाई सन् 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
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